Physics in Ancient India
 मुख्य पृष्ठ
 प्राक्कथन
 स्थिति स्थापकता संस्कार
 तेज : ऊर्जा
 वायु विमर्श
 गुरुत्व विमर्श
 भारतीय दर्शन और भौतिक विज्ञान
 दिक् परिमेय
 पार्थिव परिमेय
 कर्म
 वेग
 गुण
 गणितीय समीकरण
 प्राचीन भारत में वर्ण मापन
 द्रव्य
 अप् विमर्श
 पदार्थ
 भौतिक विज्ञान की गवेषणा
 काल परिमेयत्व
 'शब्द' : तरंग वृत्ति
 लेखक परिचय
कर्म

यदनियतदिक्प्रदेशसंयोगविभागकारणं तद्गमनमिति।
प्रशस्तपाद, -भाष्यम्, (६०० ई. पू.)

कर्म (Motion):
वैशेषिक आचार्यों ने कर्म को सामान्यत: पाँच प्रकार का बताया है। 1
(i) उत्क्षेपण (Upward motion)
(ii)अवक्षेपण (Downward motion)
(iii) आकुंचन (Shearing motion)
(iv) प्रसारण (Tensil motion)
(v)गमन (Rectilinear motion)
उत्क्षेपण और अवक्षेपण के कारक प्रयत्न (mechanical force) 2 और गुरुत्व (Gravity) 3 है, आकुंचन और प्रसारण के कारक प्रत्यास्थता (elasticity) 4 और प्रयत्न (यान्त्रिक प्रयत्न) हैं एवं गमन का कारण केवल प्रयत्न है।
इनकी व्याख्या करने पर अवगत होता है कि यदि किसी पिण्ड का ऊर्ध्व प्रदेश से संयोग और अधो प्रदेश से विभाग एक ही ऊर्ध्व दिशा में हो तो इसे उत्क्षेपण (Upward projection) कहते हैं। इसके विपरीत यदि किसी पिण्ड का ऊर्ध्व प्रदेश से विभाग और अधो प्रदेश से संयोग हो तो इसे अपक्षेपण (Downward projection) कहते हैं।
विशिष्ट दिशा निर्देश के अतिरिक्त अर्थात् अपरिभाषित दिशा में होने वाले कर्म (motion) को गमन कर्म कहते हैं। वस्तुत: गमन शब्द सभी प्रकार के कर्मो को अभिव्यक्त करता है ऐसा मानने में कोई हानि भी नहीं है। उपर्युक्त विशिष्ट दिशा आदि के गमन कर्म को अभिव्यक्त करने हेतु इन विशेष नामों का व्यवहार किया गया है, यथा ऊर्ध्वाधर दिशा के गमन को उत्क्षेपण किंवा अवक्षेपण जैसी स्थिति भी कह सकते हैं।
किसी पिण्ड का कर्म उसके पार्थिवमान या गति पर निर्भर करता है।
किसी नियत दिशा एवं एक निश्चित समय में पिण्ड जितनी दूरी तय करता है, इस प्रकार के देशान्तर प्राप्ति के मूलभूत कर्म को ही 'गमन` कहा जाता है। इसे अधोलिखित प्रकार से समझा जा सकता है-
जब एक पिण्ड एक निश्चित समय 't' में 's' दूरी समान गति से तय करता है, तब गमन होगा = s/ t
उदाहरणार्थ, ५ सैकण्ड समायन्तराल में कोई पिण्ड १५ से.मी. दूरी तय करता है-
तब गमन परिमाण = s/t = १५/५ = ३ से.मी. प्र.से. ।
कर्म के कारक (The causes of Karma) :
कर्म (motion) के कारक यांत्रिक बल, गुरुत्वबल, प्रत्यास्थ बल, अदृश्य (गुरुत्व जनित, चुंबकीय आदि) बल हैं। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के कारण किसी पिण्ड पर लगने वाले बल को 'गुरुत्व` बल कहते हैं। पिण्डों की अणुसंरचना में अणुओं के मध्य कार्यरत बल को 'प्रत्यास्थ` बल कहा जाता है एवं लोहे और चुम्बक के मध्य कार्यरत बल को 'अदृश्यबल` के नाम से जाना जाता है।
कर्म (motion) के माध्यम से ही हमें वेग (force) का अनुमान होता है। यह निर्विवाद सत्य है कि बराबर के वेग से तत् समतुल्य कर्म की प्राप्ति होती है। यदि किसी पिण्ड पर कोई वेग कार्यरत हो तब, यदि पिण्ड के पार्थिवमान (mass) को दुगना कर दिया जाय और उस पर वही वेग कार्यरत हो तो पिण्ड की गति (velocity) में परिवर्तन पहले पिण्ड की गति का ठीक आधा होता है। इससे यह स्पष्ट प्रदर्शित होता है कि कर्म (motion) केवल गति (velocity) पर ही नहीं अपितु पार्थिवमान (mass) पर निर्भर करता है। यदि कर्म को पार्थिवमान और गति के गुणनफल से व्यक्त करें तो वैशेषिक दर्शन का कर्म और भौतिकी का संवेग (momentum) होगा।
गति (Velocity) :
दिक् में पिण्डों का गमन होता है। संयोग (conjunction), विभाग (Disjunction), संख्या (Number) और इकाई (Unit) ये गुण दिक् में रहते हैं। इन सभी गुणों के व्यष्ट्यात्मक ज्ञान से हम प्रेक्षण बिन्दु से सम्बन्धित पिण्ड की स्थिति ज्ञात करते हैं।
यदि कोई पिण्ड दिक् में सीधी रेखा में गमन कर रहा है एवं समान समय अन्तराल में समान दूरी तय कर रहा है, तो ऐसी स्थिति में यह कहा जाता है कि पिण्ड एक समान गति (Uniform velocity) या स्थिर गति (Constant velocity) से गमन कर रहा है। गति को पिण्ड के द्वारा तय की गई दूरी के परिवर्तन की दर से व्यक्त करते हैं, जिसका वर्णन हम पूर्व में भी कर चुके हैं। दूरी परिवर्तन की दर ज्ञात करने हेतु दूरी का मापन कर्म की दिशा में और समय का मान चिह्नित स्थल पर पिण्ड के संयोग और विभाग से घड़ी द्वारा करते हैं।
यदि कोई पिण्ड समान गति (Uniform velocity) से 's' दूरी (distance) तय करता है और उसे यह दूरी तय करने में 't' समय लगता है तो-
गति (velocity) = s/t
इसी प्रकार गति परिवर्तन से गतिचय (acceleration) को परिभाषित करते हैं-
यदि -प्रारम्भिक गति (Initial velocity) = 'u'
अन्तिम गति (Final velocity) = 'v'
समय अन्तराल (Time) = 't'
तब गतिचय (acceleration) = (v-u)/ t
उदाहरण - एक किसी पिण्ड में ३४ सेकेण्ड समयान्तराल में ५ से.मी. प्रति सेकेण्ड की दर से ११ से.मी. प्रति सेकेण्ड गमन होता है-
तब यहाँ - u = ५ से.मी.
v= ११ से.मी.
t = ३ से.
गमनचय = (११-५)/३ = २ से.मी./वर्ग से.मी.
न्यूटन के कर्म के समीकरण (Newton's equations of motion):
वर्तमान में कर्म के विषय में प्रसिद्ध न्यूटन के समीकरणों को भास्कराचार्य की पुस्तक 'लीलावती` से सहजतया समझा जा सकता है।
कर्म का प्रथम समीकरण : यदि कोई पिण्ड समान 'गतिचय` 'a' के अन्तर्गत शून्य समय पर प्रारम्भिक गति (initial velocity) 'u' से गमन कर रहा है तो आरम्भ से प्रत्येक सेकेण्ड के समयान्तराल पर उसकी गति निम्न प्रकार होगी-
u, u+a, u+2a, u+3a, .......................................
यदि अन्तिम गति (Final velocity) v और समयान्तराल t हो तब गति v भास्कराचार्य 5 के अनुसार अधोलिखित होगी-
मुख = प्रथम पद (the first term)=(u)
पद = पदों की संख्या (the number of the terms) = (t+१)
चय = समान अन्तर (common difference)=(a)
अन्त्य = अन्तिम पद (the last term)= (v)
अत: अन्तिम पद = (पदों की संख्या से एक कम) x समान अन्तर + प्रथम पद
अर्थात् v = t x a + u
या v = at + u
उपर्युक्त समीकरण ही न्यूटन के कर्म का प्रथम समीकरण कहलाता है। 6
कर्म का द्वितीय समीकरण - कर्म का प्रकृत समीकरण दिये हुए समय t में पिण्ड द्वारा तय की गई दूरी को ज्ञात करना है। यदि कोई पिण्ड एक समान गतिचय के अन्तर्गत गमन कर रहा है तो उसके द्वारा तय दूरी उतने ही समय में औसत गति (average velocity) द्वारा तय दूरी के बराबर होगी।
भास्कराचार्य ने इस विषय में अपना समीकरण निम्न प्रकार से दिया है -
मध्यगति = {प्रथम पद (मुख) + अन्तिम पद (अन्त्य)} /२
= u + (u+at)/२
= u + 1/२ at
अत: t समय में तय दूरी -
s = औसत गति x समय
या s = ( u + 1/२ at) x t
या s = ut + 1/२ at
यह न्यूटन का दूसरा नियम है।
कर्म का तृतीय समीकरण : उपर्युक्त दोनों समीकरणों से t का विलोपन करने से कर्म का तीसरा समीकरण प्राप्त होता है।
प्रथम समीकरण से -
t = (v - u)/a
t का यह मान द्वितीय समीकरण में रखने पर -
s = u [ (v-u)/a] + 1/2 a [(v-u)/a]
या v= u+ २as
उपर्युक्त समीकरण ही न्यूटन का कर्म के सम्बन्ध में तृतीय नियम है। इस प्रकार हम कर्म के तीनों समीकरण प्राप्त कर सकते हैं।
****************************************
References
1
प्रशस्तपाद, -भाष्यम्, (६०० ई. पू.)
उत्क्षेपणादीनां पञ्चानामपि कर्मत्वसम्बन्ध:। एकद्रव्यवत्वं, क्षणिकत्वं, पूर्वद्रव्यवृत्तित्वं, अगुणवत्वं, गुरुत्वद्रवत्वसंयोगजत्वं स्वकार्यसंयोगविरोधित्वं, संयोगविभागनिरपेक्षकारणत्वं, असमवायिकारणत्वं, स्वपराश्रयसमवेतकार्यारम्भकत्वं समानजातीयानारम्भकत्वं च प्रतिनियतजातियोगित्वम् दिग्विशिष्टकार्यारम्भकत्वं च विशेष:। तत्र उत्क्षेपणं शरीरावयवेषु तत्सम्बद्वेषु च यदूर्ध्वभाग्भि: प्रदेशै: संयोगकारणमधोभाग्भिश्च प्रदेशे: विभागकारणं कर्मोत्पद्यते, गुरुत्वप्रयत्नसंयोगोभयस्तत् उत्क्षेपणम्। तद्विपरीतसंयोगविभागकारणं कर्मापक्षेपणम्। ऋजुनो द्रव्यस्याग्रावयवानां तद्देशैर्विभाग: संयोगश्च मूलप्रदेशैर्येन कर्मणावयवी कुटिलं संजायते तदाकुञ्चनम्। तद्विपर्ययेण संयोगविभागोत्पत्तौ येन कर्मणावयवी ऋजु: सम्पद्यते तत्प्रसारणम्। यदनियतदिक्प्रदेशसंयोगविभागकारणं तद्गमनमिति। एतत्पञ्चविधमपि कर्मशरीरावयवेषु तत्सम्बन्धेषु च सत्प्रत्ययमसत्प्रत्ययं च यदन्यत्तदप्रत्ययमेव तेष्वन्येषु च तद्गमनमिति।
2
See Chapter १२, वेग संस्कार द्वादशाध्याय
3
See Chapter १४, गुरुत्व विमर्श- चतुर्दशाध्याय
4
See Chapter १३, वेग संस्कार - त्रयोदशाध्याय
5
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.)
"व्येक पदध्नचयोमुखयुक्स्यादन्त्यधनम्।"
6
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.)
"मुखयुक् दलितं तत् (अन्त्यधनं) मध्यधनम्।"
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंञालय, भारत सरकार